हालांकि, महाकुंभ से जुड़ी पौराणिक और ऐतिहासिक कहानियां कई हजार साल पुरानी हैं। आदि शंकराचार्य से लेकर सम्राट हर्षवर्धन तक ने इसे एक धार्मिक परंपरा के रूप में स्थापित किया। वहीं, पौराणिक कथाओं के अनुसार, इसकी शुरुआत समुद्र मंथन की घटना से हुई थी।
समुद्र मंथन से जुड़ी है कुंभ की पौराणिक कथा
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, समुद्र मंथन के दौरान देवताओं और राक्षसों के बीच अमृत पाने के लिए संघर्ष हुआ था। जब समुद्र मंथन से अमृत कलश बाहर आया, तो उसे लेकर दोनों पक्षों में झगड़ा शुरू हो गया। इस दौरान भगवान विष्णु ने मोहिनी अवतार लेकर राक्षसों को भ्रमित किया। इसी बीच, देवताओं ने इंद्र के पुत्र जयंत को अमृत कलश सौंप दिया जब जयंत कौवे का रूप धारण कर अमृत कलश लेकर जा रहे थे, तो रास्ते में प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में अमृत की बूंदें गिर गईं। तभी से इन चार स्थानों पर कुंभ मेले का आयोजन किया जाता है।
इतिहास में कब हुआ महाकुंभ का पहला उल्लेख?
इतिहासकारों के अनुसार, कुंभ मेले का पहला ऐतिहासिक उल्लेख प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने किया था। ह्वेनसांग ने 7वीं सदी में अपनी भारत यात्रा के दौरान प्रयागराज के कुंभ मेले का उल्लेख किया। उसने बताया कि उस समय के राजा हर्षवर्धन हर 5 साल में संगम तट पर एक विशाल आयोजन करते थे। इस आयोजन में बड़ी संख्या में लोग शामिल होते थे, और राजा अपनी धन-संपत्ति गरीबों को दान कर देते थे।
महाकुंभ का आयोजन: आदि शंकराचार्य से जुड़ी परंपरा
कुंभ मेले को लेकर एक मान्यता यह भी है कि आदि शंकराचार्य ने इसकी शुरुआत की थी। उन्होंने अखाड़ों और संन्यासियों के लिए शाही स्नान की परंपरा शुरू की थी। कुछ विद्वानों का कहना है कि कुंभ मेले का आयोजन गुप्त काल में शुरू हुआ था। लेकिन इसे एक धार्मिक परंपरा के रूप में स्थापित करने का श्रेय आदि शंकराचार्य को दिया जाता है।
144 साल बाद लग रहा है पूर्ण महाकुंभ
इस बार प्रयागराज में लगने वाला महाकुंभ इसलिए भी खास है, क्योंकि यह 144 साल बाद लगने वाला पूर्ण महाकुंभ है। हर 12 साल में कुंभ मेला लगता है, लेकिन 12 कुंभ मेलों के बाद जो आयोजन होता है, उसे पूर्ण महाकुंभ कहा जाता है। ऐसा खगोलीय संयोग 144 साल में एक बार बनता है।
महाकुंभ का महत्व: क्यों किया जाता है कुंभ में स्नान?
महाकुंभ में त्रिवेणी संगम पर स्नान करना बेहद पवित्र माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि संगम में स्नान करने से व्यक्ति के सारे पाप धुल जाते हैं और उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। त्रिवेणी संगम में गंगा, यमुना और सरस्वती नदियों का मिलन होता है। सरस्वती नदी अब लुप्त हो चुकी है, लेकिन धार्मिक मान्यता है कि वह धरती के नीचे प्रवाहित होती है।
कुंभ मेले के वैज्ञानिक पहलू
कुंभ मेला केवल धार्मिक दृष्टिकोण से ही नहीं, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है। खगोलविदों के अनुसार, कुंभ मेले का आयोजन उस समय किया जाता है, जब सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति विशेष खगोलीय स्थिति में होते हैं। यह स्थिति प्राकृतिक ऊर्जा का संचार करती है। इस समय त्रिवेणी संगम का पानी विशेष रूप से शुद्ध और स्वास्थ्यवर्धक हो जाता है। इसलिए कुंभ मेले के दौरान संगम में स्नान करने से शारीरिक और मानसिक शुद्धि होती है।
प्रयागराज कुंभ का विशेष महत्व
हालांकि कुंभ मेला प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में लगता है, लेकिन प्रयागराज कुंभ को सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना गया है। इसका कारण यहां का त्रिवेणी संगम है। माना जाता है कि यहां स्नान करने से व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसके अलावा, प्रयागराज का कुंभ मेला ब्रह्मा जी द्वारा स्थापित किया गया था। इसलिए इसका महत्व अन्य स्थानों की तुलना में अधिक है।
समुद्र मंथन से दूर्वा घास और कौवे का महत्व
पौराणिक कथाओं के अनुसार, जब जयंत अमृत कलश लेकर भाग रहे थे, तो अमृत की कुछ बूंदें दूर्वा घास पर भी गिर गई थीं। इसलिए दूर्वा को पवित्र घास माना जाता है और गणेश पूजा में इसे चढ़ाने की परंपरा है। इसके अलावा, जयंत ने जब कौवे का रूप धारण किया था, तो कौवे की चोंच पर भी अमृत की बूंदें लग गई थीं। इस वजह से कहा जाता है कि कौवे की आयु लंबी होती है और उसकी मृत्यु प्राकृतिक रूप से कम ही होती है।
महाकुंभ: आस्था और संस्कृति का संगम
महाकुंभ मेला केवल हिंदू धर्म के अनुयायियों के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व के लोगों के लिए एक आध्यात्मिक और सांस्कृतिक आयोजन बन चुका है। यह मेला आस्था, परंपरा और संस्कृति का ऐसा संगम है, जो हजारों वर्षों से भारतीय संस्कृति को जीवित रखे हुए है। महाकुंभ भारतीय संस्कृति की प्राचीन विरासत का प्रतीक है। यह हमें अपनी धार्मिक परंपराओं और मूल्यों को समझने का अवसर प्रदान करता है।